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बरेली की बर्फी, एक छोटे शहर बरेली में रहने वाली लड़की बिट्टी (कृति सनोन) की कहानी है | बिट्टी बाकि लड़कियों की जैसे चारदीवारी में कैद होकर रहने वालों में से नहीं है, बल्कि वो तो जन्मजात बाग़ी / विद्रोही है | वो हर एक काम करना चाहती है जिसकी लड़कियों को मनाही है | चिराग (आयुष्मान खुराना) जो मोहब्बत में चोट खाये एक दिलफेंक आशिक हैं जो बिट्टी को अपना दिल दे बैठे हैं. चिराग उन लोगों में से हैं जो साम-दाम-दंड-भेद में विश्वास रखते हैं और किसी भी तरह का जुगाड़ लगाकर बिट्टी को अपना बनाना चाहते हैं | उनके ही ऐसे किसी जुगाड़ का नतीजा हैं प्रीतम विद्रोही ( राजकुमार राव ), जिनका उद्देश्य चिराग द्वारा पूर्व निर्धारित किया जा चूका है - बिट्टी को चिराग के करीब लाना | किन्तु चिराग का बिछाया मायाजाल सुलझने की जगह उलझता ही जाता है और वो खुद ही इसके चंगुल में फंस जाते हैं | कहानी के बाकि किरदारों में सम्मिलित हैं बिट्टी के पिताजी (पंकज त्रिपाठी) और उसकी माताजी (सीमा पाहवा) | हृषिकेश मुख़र्जी के बावर्ची अंदाज़ में सूत्रधार बने हैं जावेद अख्तर|
कहानी की शुरआत काफी रोचक है और दर्शकों को बांधे रखती है | UP वाले देशी शब्दों (बऊआ , लल्लन टॉप... इत्यादि ) का जम के प्रयोग किया गया है, जो न की महज़ हास्यप्रद है बल्कि एक अपनापन झलकता है और किरदारों को विश्वसनीय बनाता है | निर्देशक अश्विनी अय्यर तिवारी की ये दूसरी फिल्म है, निल बट्टे सन्नाटा के बाद | अश्विनी जी की कहानियों का चुनाव मुझे हृषिकेश दा और बासु चटर्जी की पारिवारिक फिल्मों की याद दिलाता है | फिल्म में कई ऐसे क्षण होंगे जो आपको किसी आपबीती की याद दिलाएंगे | जिस बखूबी से किरदारों की भूमिका बाँधी गयी है उससे आप निर्देशक की मुस्तैदी का अंदाज़ा लगा सकते हैं|
सभी कलाकारों ने अच्छा प्रदर्शन किया है | कृति सनोन जो अब तक सिर्फ सजावटी किरदार निभाती आईं हैं, उन्हें काफी पुष्ट किरदार मिला है | उनके अब तक के काम में से मुझे ये काफी बेहतर लगा पर इस फिल्म उनके लिए बहुत कुछ करने की गुंजाईश थी जिसे वो पूर्णतः भुना नहीं पायीं | आयुष्मान एक बेहतरीन कलाकार हैं और इस फिल्म में आपको उनका एक मिश्रित रूप देखने को मिलेगा जहाँ एक तरफ आपको उनका किरदार मतलबी और नीच लगेगा वहीँ आप उनके अगाढ़ प्रेम का सम्मान भी करेंगे | राजकुमार इस सदी के युवा अभिनेताओं में से सर्वश्रेष्ठ हैं | भले ही इस फिल्म में उनका काम इतना चुनौतिपूर्ण नहीं है पर फिर भी उनके अभिनय और चरित्र की विविधता अत्युत्तम है | पंकज त्रिपाठी और सीमा पाहवा दोनों मंजे हुए खिलाडी हैं और कई वर्षों से हिंदी थिएटर करते आ रहे हैं | दोनों का रोल सीमित होते हुए भी वे कई सराहनीय पलों में अपनी छाप छोड़ जाते हैं | पंकज जी ने ऎसे पिता का किरदार निभाया है जो अत्यंत भावुक है और अपनी बेटी से बहुत प्यार करता है | उसे पता है की उसकी बेटी सिगरेट पीती है और रात भर सड़कों पर घूमती रहती है पर इस बात का उसे ज़रा भी मलाल नहीं है| अब दर्शक इसे पिता की लापरवाही भी समझ सकते हैं या पिता का खुले विशरों का होना और अपनी बेटी पर अटूट विश्वास रखना |
फिल्म में वो सभी क़ाबलियत हैं की ये एक यादगार फिल्म बन सकती थी पर कहीं मध्यांतर के बाद निर्देशक की पकड़ वास्तविकता से छूट गई | एक समय के बाद फिल्म में कौतुहल की जगह स्वाभाविकता ने ले ली | अंत के ४५ मिनट में आपको लगेगा, अरे ये सब तो पहले कई फिल्मों में देख चुके हैं | यूँ कह सकते हैं की फिल्म के मसाले सारे उत्कृष्ट कोटि के हैं और सौ फ़ीसदी खरे हैं पर वहीँ विधि (कहानी) थोड़ी घिसी पिटी हो गयी | मुझे अच्छा लगता यदि निर्देशक सुरक्षित खेलने की जगह कुछ नए की कोशिश करते | हो सकता था की आम जनता उसे नकार देती पर समीक्षकों की नज़र में वो एक काफी बेहतर फिल्म होती | जरूरी तो नहीं है की हर फिल्म का अंत ... and they happily lived ever after ही हो | फिल्म के गाने और संगीत मामूली सा है, सिवाए एक गाने के "स्वीटी तेरा ड्रामा" जो निःसंदेह सराहनीय है| इस गाने में आपको देसी लोग संगीत की झलक दिखाई देगी | फिल्म 2.5 करोड़ के छोटे बजट पर बनी है और उसे वसूलने में फिल्म वितरकों (डिस्ट्रीब्यूटर्स) को खासी दिक्कत नहीं होनी चाहिए |
Verdict: मुझे इस फिल्म से काफी उम्मीदें थी की ये एक विलक्षण फिल्म साबित हो सकती है, पर ज्यादा से ज्यादा इसे औसत से बस थोडा सा ऊपर आँका जा सकता है | किसी भी हालत में ये फिल्म असाधारण की श्रेणी में तो सम्मिलित नहीं हो सकती | पर एक पारिवारिक फिल्म होने के चलते, आप अवश्य इसे परिवार सहित देख सकते हैं | यदि आप UP की भाषा समझते हैं तो आपको और आनंद आएगा | बस यही सलाह दूंगा की फिल्म देखने बिना किसी अपेक्षा के जाएं, अन्यथा निराशा की होगी |
Youtube: YouTube.com/CriticAmit
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